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गुरु पूर्णिमा

  • Writer: Suman Sharma
    Suman Sharma
  • Jul 10
  • 2 min read

गुरुजन का कार्य है ,गहन, अनंत व जटिल ज्ञान को सरल बनाकर अपने विद्यार्थियों के लिए इस तरह प्रस्तुत करना कि वह उस ज्ञान से व्यक्तिगत व समष्टिगत जीवन के हित में कार्य कर सके । गहन अंधकार में जब व्यक्ति को राह न सूझे तो गुरु का ज्ञान प्रकाश पुंज बन कर उसका राह प्रशस्त करे , यदि पथ में दिशानिर्देश न हो तो गुरु का ज्ञान , ऐसी दृष्टि प्रदान करें जिससे व्यक्ति सही राह का चुनाव कर सके । वेदव्यास जी ने समस्त धरा के लिए अपने गुरु दायित्व का निर्वाह ऐसे किया कि उससे उऋण होना असंभव है , कृतज्ञता , नमन , पूजन , और वंदन अभिनंदन

इसलिए अनिवार्य है ।

महर्षि पराशर और माता सत्यवती के पुत्र कृष्ण दैपायन अर्थात महर्षि वेदव्यास जी ने एक वेद को चार वेदों में वर्गीकृत कर उसे जनसुलभ बनाया , महाभारत की रचना की जिसमें भगवतगीता है । भगवत गीता जो मनोविज्ञान का आदिग्रंथ है । पुराणों , उप-पुराणों का लेखन , संपादन कर चीरंजीवी होने वाले महर्षि व्यास जी सहित समस्त गुरुजनों के चरणों में नमन ।

कहते हैं गुरु बिन ज्ञान नहीं , क्योंकि असीम ज्ञान को व्यावहारिक , प्रकाशमान , निर्मल व लोक हितैषी बनाने के लिए अंतर्चेतना तभी विकसित हो सकती है जब अहम न्यून हो और चित्त बाहरी जगत में से किसी को गुरु रूप में स्वीकार करने हेतु विनम्र होकर विद्यार्थी की भूमिका में प्रवेश करे ।

ज्ञान के इस लेन देन की प्रक्रिया में गुरु के गांभीर्य और चित्त के विद्यार्थी बनने का चरण महत्वपूर्ण है । चित्त जब विद्यार्थी बन जाता है तो प्रकृति के कण कण को गुरु मान कर सीखता चलता है । वह बीज से पौधे बनने की प्रक्रिया के निरीक्षण से धैर्य , शक्ति , साहस सीखता है तो वृक्ष से विनम्र होकर देना , वह मिट्टी से एक साथ निर्माण और नश्वरता सीखता है तो आकाश व सागर से विशाल हृदय बनना । तर्कशील , कुशाग्र बुद्धि का यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब प्रकृति गुरु हो सकती है तो क्या ज्ञान का भंडार मोबाइल गुरु नहीं हो सकता ?

किशोरवयीन मेरे युवा साथियों , यद्यपि मोबाइल ज्ञान का भंडार है , तथापि चेतना के अभाव में उसे गुरु बनाना दुविधा पूर्ण है , विनाशकारी है ।

गुरु व शिष्य के बीच का संबंध परस्पर चैतन्यपूर्ण हो तो उसमें व्यक्ति व जगत के हित की संभावना बढ़ती है ।

जय गुरुदेव !




 
 
 

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